गोकर्ण और धुंधकारी का प्रेरणादायक प्रसंग
श्रीमद्भागवत महापुराण केवल एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन का दर्पण है। इसमें वर्णित हर कथा मनुष्य को धर्म, सत्य और भक्ति की ओर ले जाती है। इन्हीं कथाओं में से एक अत्यंत मार्मिक प्रसंग है – गोकर्ण और धुंधकारी की कथा। यह प्रसंग हमें बताता है कि पाप कितना भी बड़ा क्यों न हो, लेकिन यदि हम ईमानदारी से भगवान की कथा का श्रवण और मनन करें, तो मुक्ति निश्चित है।

कुंभद्रा नदी के तट पर आत्मदेव नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। वे धर्मपरायण, उदार और वेदों के ज्ञाता थे, परंतु उनकी पत्नी धुंधुली झगड़ालू और कुटिल स्वभाव की थी। दोनों के पास धन–संपत्ति तो थी, लेकिन संतान सुख का अभाव उनके जीवन को अधूरा बना रहा था।
आत्मदेव संतान की चाह में दुखी होकर वन की ओर चले गए और वहां एक महात्मा से मिले। महात्मा ने स्पष्ट कहा कि उनके भाग्य में संतान नहीं है, किंतु ब्राह्मण के हठ से उन्हें एक दिव्य फल प्रदान किया।
धुंधुली ने उस फल को स्वयं खाने के बजाय चालाकी से अपनी बहन के पुत्र को अपने घर लाकर अपना बताया। इस प्रकार धुंधकारी का जन्म हुआ। वहीं, उस फल को एक गाय को खिला दिया गया, जिससे गोकर्ण का जन्म हुआ।
गोकर्ण और धुंधकारी का स्वभाव
गोकर्ण अत्यंत विद्वान, धर्मनिष्ठ और भक्ति में लीन रहते थे। इसके विपरीत, धुंधकारी पापाचार, हिंसा और दुराचार में डूब गया। वह व्यभिचारी, चोर और अधर्मी बन गया। अंततः अपने दुष्कर्मों के कारण वेश्याओं द्वारा मारा गया और भयंकर प्रेत योनि को प्राप्त हुआ।
प्रेत योनि से मुक्ति की खोज
धुंधकारी प्रेत रूप में अत्यधिक पीड़ा झेल रहा था। वह भोजन, जल और विश्राम से वंचित था। वह अपने भाई गोकर्ण के पास पहुंचा और रोते हुए अपनी मुक्ति की भीख मांगी।
गोकर्ण ने तीर्थ, श्राद्ध और दानादि उपाय किए, लेकिन धुंधकारी का उद्धार नहीं हुआ। तब सूर्यदेव ने संकेत दिया कि श्रीमद्भागवत कथा का सात दिन का श्रवण ही इसका एकमात्र उपाय है।
भागवत सप्ताह और धुंधकारी की मुक्ति
गोकर्ण ने भागवत कथा का आयोजन किया। सात गांठों वाले एक बांस पर धुंधकारी प्रेत को बैठाकर कथा श्रवण कराया गया।
हर दिन एक गांठ फटती गई और सातवें दिन धुंधकारी का प्रेत रूप नष्ट हो गया। वह दिव्य स्वरूप धारण कर भगवान का पार्षद बन गया और विमान में बैठकर बैकुंठधाम को चला गया।
शिक्षा और संदेश
यह कथा हमें गहरा संदेश देती है :
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पाप कितना भी बड़ा क्यों न हो, भागवत कथा श्रवण से मुक्ति मिलती है।
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सच्चा श्रवण तभी होता है जब मनन और साधना साथ हो।
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भगवान का नाम और कथा ही जीवन का परम धन है।
निष्कर्ष
धुंधकारी का उद्धार केवल इस कारण हुआ क्योंकि उसने सात दिन बिना विचलित हुए कथा श्रवण किया और मनन किया।
गोकर्ण जी ने दिखा दिया कि भक्ति ही सभी बंधनों से मुक्ति का मार्ग है।