जब ठाकुर जी खुद से किडनेप होके भक्त के साथ आ गए 

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गुजरात के डाकोर गाँव में भक्त रामदास जी रहते थे, जो हर एकादशी पर द्वारका जाकर भगवान रणछोड़ जी के दर्शन करते थे।

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भगवान उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए और बोले— "तुम्हें द्वारका आने की जरूरत नहीं, मैं स्वयं तुम्हारे साथ डाकोर चलूँगा।"

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भगवान ने रामदास जी से कहा कि वे बैलगाड़ी लेकर आएँ और मंदिर के पीछे की खिड़की से उन्हें चुपचाप बाहर निकाल लें।

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रामदास जी भगवान को लेकर डाकोर चल पड़े, लेकिन पुजारियों ने उन्हें पकड़ने के लिए घोड़ों पर पीछा किया।

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भगवान ने रामदास जी से कहा— "मुझे पास के तालाब में छुपा दो।" लेकिन जब पुजारियों ने हमला किया, तो भगवान ने उनके सभी घाव स्वयं झेल लिए।

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पुजारियों ने भगवान को लौटाने की शर्त रखी कि रामदास जी उन्हें उनके वजन के बराबर सोना दें।

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रामदास जी गरीब थे, लेकिन जब उनकी पत्नी की एक छोटी सोने की नथ तराजू में रखी, तो वही भगवान के वजन से भारी हो गई।

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भगवान ने पुजारियों से कहा— "अब मैं डाकोर में ही रहूँगा!" और तब से डाकोर रणछोड़ जी का पवित्र धाम बन गया।

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इस कथा से हमें सिखने को मिलता है कि सच्ची भक्ति भगवान को भी भक्त के अनुरूप चलने पर मजबूर कर देती है।

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