गोसाई श्री विट्ठलनाथ जी की कथा : जब गोसाई जी डाटने लगे ठाकुर जी को

गोसाई श्री विट्ठलनाथ जी की कथा: जब गोसाई जी डाटने लगे ठाकुर जी को

परिचय

धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन में गुरु और ठाकुर जी (भगवान) के संबंध को समझना अत्यंत आवश्यक है। इस कथा में गोसाई श्री विट्ठलनाथ जी और उनके शिष्य के माध्यम से ठाकुर जी के सहज और करुणामयी स्वरूप तथा गुरु की प्रसन्नता का महत्व स्पष्ट होता है। यह कथा न केवल धार्मिक भावनाओं को प्रेरित करती है, बल्कि यह सिखाती है कि भक्ति में प्रेम, सेवा और चिंतन का कितना बड़ा महत्व है।

गोसाई श्री विट्ठलनाथ जी की कथा : जब गोसाई जी डाटने लगे ठाकुर जी को


कथा की शुरुआत: गोसाई जी की नाराज़गी

गोसाई श्री विट्ठलनाथ जी अपने एक शिष्य से नाराज हो गए। उनकी नाराजगी इतनी बढ़ी कि उन्होंने अपने शिष्य को गिरिराज जी के मंदिर से बाहर कर दिया। यह आदेश देते हुए उन्होंने कहा,
“तुम यहां से चले जाओ और जब तक मेरी आज्ञा न हो, मेरे सामने मत आना।”
बेचारा शिष्य अपराधी अनुभव करते हुए गिरिराज जी से दूर हो गया। उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने अपराध का प्रायश्चित कैसे करे।


शिष्य का पश्चाताप

शिष्य ने प्रयास किया कि गोसाई जी प्रसन्न हो जाएं, लेकिन जब कोई उपाय काम नहीं आया तो वह आंसुओं में डूबकर गिरिराज जी से दूर चला गया। यात्रा के दौरान वह आगरा पहुंचा। यहां उसने एक ढकेल पर जलेबियाँ बनते हुए देखीं।

शिष्य के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ:
“यदि मैं गिरिराज जी के मंदिर में होता, तो इन जलेबियों का भोग ठाकुर जी को लगाता। कितना आनंद आता उन्हें!”
यह सोचते-सोचते उसकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी।


ठाकुर जी का अनोखा प्रेम

शाम को गोसाई श्री विट्ठलनाथ जी ने गिरिराज जी के मंदिर में प्रवेश किया। जैसे ही कपाट खोले गए, ठाकुर जी की मूर्ति की उठी हुई भुजा पर जलेबियाँ रखी हुईं थीं। यह दृश्य देखकर गोसाई जी चौंक गए। उन्होंने पूछा,
“आज तो रसोई में जलेबियाँ बनी ही नहीं, फिर ये यहाँ कैसे आईं?”

ठाकुर जी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया,
“यह मेरे एक भक्त ने भेजी हैं।”

गोसाई जी ने जिज्ञासावश पूछा,
“कौन भक्त? हमें भी बताइए।”

ठाकुर जी ने हिचकिचाते हुए कहा,
“आप नाराज हो जाएंगे, इसलिए मैं नहीं बताऊंगा।”
लेकिन जब गोसाई जी ने वचन दिया कि वे नाराज नहीं होंगे, तब ठाकुर जी बोले,
“वही भक्त, जिसे आपने गिरिराज जी से बाहर कर दिया था।”


गोसाई जी का पछतावा

गोसाई जी यह सुनकर स्तब्ध रह गए। वे ठाकुर जी के समक्ष घुटनों पर बैठ गए और रोते हुए कहा,
“हे ठाकुर जी, आपने मुझसे बड़ा अपराध करवा दिया। मुझे क्षमा करें।”
ठाकुर जी ने उत्तर दिया,
“गुरु का कार्य है शिष्य में गुण देखकर उसे मेरे चरणों तक लाना। लेकिन मेरा स्वभाव है कि जिसे मैं एक बार स्वीकार कर लेता हूँ, उसे कभी त्याग नहीं पाता।”

यह सुनकर गोसाई जी ने तुरंत उस शिष्य को बुलवाया और उसे फिर से गिरिराज जी में सेवा का अधिकार प्रदान किया। इसे भी जरूर से जाने – मिला रेपा: तांत्रिक से संत बनने की अद्भुत यात्रा )


गुरु की प्रसन्नता और ठाकुर जी की कृपा

इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि ठाकुर जी का स्वभाव अत्यंत सरल और करुणामयी है। वे कभी अपने भक्तों को त्यागते नहीं। लेकिन गुरु की प्रसन्नता के बिना ठाकुर जी की कृपा प्राप्त करना भी कठिन है। यदि गुरु प्रसन्न हैं, तो भगवान की कृपा सहज रूप से मिल जाती है।

गुरु की नाराजगी का परिणाम कितना बड़ा हो सकता है, यह कथा के माध्यम से समझा जा सकता है।
ठाकुर जी के शब्द थे:
“जिससे गुरु प्रसन्न नहीं, उससे मैं स्वयं कुछ नहीं कहता। लेकिन जिस पर गुरु प्रसन्न हो, उसे मैं अपने हृदय से लगाता हूँ।”


गुरु उत्सव का महत्व

कथा का एक और सुंदर भाग यह बताता है कि जब शिष्य अपने गुरु का उत्सव मनाते हैं, तो ठाकुर जी भी उस उत्सव में भाग लेते हैं। ऐसा कहा गया है कि जब किसी भक्त के द्वारा गुरु उत्सव का आयोजन होता है, तो वैकुंठ में भी वह उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।

पूज्य मलूक पीठ वाले महाराज जी ने एक बार कहा:
“गुरु उत्सव के दौरान ठाकुर जी अपने निज कुंज को छोड़कर गुरु की कुंज में विराजते हैं। जब तक उत्सव चलता है, ठाकुर जी वहीं निवास करते हैं।”


चिंतन और मानसी सेवा का महत्व

कथा सुनने, सेवा करने और भक्ति करने के साथ-साथ चिंतन भी अत्यंत आवश्यक है।
श्री वल्लभाचार्य जी ने कहा है:
“सेवा में चिंतन का स्थान सबसे ऊंचा है।”

चिंतन से मन में एक कुंज निर्मित होती है, जिसमें श्यामा-श्याम विराजमान होते हैं। यह कुंज भक्त के हृदय में स्थायी रूप से निवास करती है।

  • मानसी सेवा का स्वरूप:
    1. अपने मन में ठाकुर जी के लिए एक सुंदर कुंज की कल्पना करें।
    2. कुंज में फूल, नदी, और स्वच्छ वातावरण की छवि बनाएँ।
    3. उस कुंज में ठाकुर जी को विराजमान करें और सेवा का भाव रखें।

गोसाई जी और ठाकुर जी की लीला का संदेश

कथा का मुख्य संदेश यह है कि भक्त के लिए गुरु और ठाकुर जी का स्थान सर्वोच्च है।

  • ठाकुर जी कभी किसी को त्यागते नहीं।
  • गुरु की प्रसन्नता से ही ठाकुर जी की कृपा प्राप्त होती है।
  • भक्ति में सेवा, चिंतन और प्रेम का महत्व सबसे अधिक है।

यह कथा हमें सिखाती है कि जीवन में यदि भक्ति का मार्ग अपनाना है, तो गुरु का आदर और उनकी कृपा प्राप्त करना अनिवार्य है।   ( इसे भी पढे- मां शाकंभरी देवी की परम आनंदमयी कथा )


निष्कर्ष

ठाकुर जी का प्रेम और गुरु की प्रसन्नता भक्त के जीवन को सार्थक बनाते हैं। गोसाई श्री विट्ठलनाथ जी की यह कथा भक्ति के महत्व, गुरु के आदर और चिंतन के प्रभाव को गहराई से समझाती है। भक्ति का मार्ग सरल है, लेकिन उसमें प्रेम, निष्ठा और समर्पण होना चाहिए। गुरु और भगवान के प्रति यदि यह तीनों भाव हैं, तो जीवन में कोई भी बाधा भक्त को रोक नहीं सकती।


FAQs

  1. गुरु की प्रसन्नता क्यों महत्वपूर्ण है?
    गुरु की प्रसन्नता से ही भगवान की कृपा प्राप्त होती है। गुरु ही भक्त को सही मार्ग दिखाते हैं।
  2. ठाकुर जी का स्वभाव कैसा है?
    ठाकुर जी करुणामयी और प्रेमपूर्ण हैं। वे अपने भक्त को कभी त्यागते नहीं।
  3. मानसी सेवा क्या है?
    मानसी सेवा वह सेवा है, जो मन में चिंतन के माध्यम से की जाती है। यह ठाकुर जी के प्रति सबसे उच्च स्तर की भक्ति है।
  4. गुरु उत्सव का क्या महत्व है?
    गुरु उत्सव में ठाकुर जी भी शामिल होते हैं और भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।
  5. चिंतन भक्ति में क्यों आवश्यक है?
    चिंतन से भक्त भगवान के साथ गहरी आध्यात्मिक अनुभूति कर पाता है और मन में भगवान की छवि निर्मित करता है।

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