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क्यों नहीं है भगवान जगन्नाथ के हाथ-पाव | भारत वर्ष का एक ऐसा मंदिर जहाँ जाने का मेरा तो बहुत ही ज्यादा मन है, देखते है कब कृपया होती है और और ये रहस्यमयी बात को जानने के बाद शायद आप का भी मन कर जाए, वहाँ जाके दर्शन पाने का | ओडिसा के पूरी में स्थित प्रभु जगन्नाथ जी का मंदिर इस मंदिर में प्रभु जगन्नाथ अपने भाई बलराम ( दाऊ ) और बहन सुभद्रा के साथ विराजमान है | भगवान जगन्नाथ जी की रथ यात्रा तो पूरे संसार में प्रसिद्ध है एक ऐसी रथ यात्रा जिससे लोगों को अपार भाव जुड़ा है | एक ऐसी रथ यात्रा जिसके शुरू होने से पहले, आज भी उस प्रदेश के राजा आके सोने (Gold) के झाड़ू से रास्ता साफ करता है | इस मंगल यात्रा में भगवान जगन्नाथ अपने भाई और बहन के साथ अपने भक्तों के बीच जाते है | 3 किमी कि इस यात्रा में प्रभु जगन्नाथ के दर्शन के लिए दुनिया भर से लोग आते है |
कथा -भगवान जगन्नाथ के हाथ- पाव क्यों न है
भगवान जगन्नाथ के हाथ-पाव खुद उनके ही द्वारा दिए गए वरदान के कारण ही गवां बैठे है | भगवान जगन्नाथ मतलब जो इस पूरे जगत के नाथ है और तीनों लोको के स्वामी है, इनके अपार भक्ति और कृपया से लोगों की मन इच्छा मुराद पूरी होती है | उन त्रिलोक स्वामी के हाथ-पावं नहीं है | और ऐसा नहीं है कि केवल भगवान जगन्नाथ के ही हाथ-पाव नहीं है यहाँ विराज मान भगवान जगन्नाथ के भाई बलराम और बहन सुभद्रा के भी हाथ-पाव नहीं है | और इन सभी के हाथ-पाव का ना होंना एक अपने आप में बहुत बड़ी अद्भुत और रहस्यमयी घटना का प्रमाण है
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प्रभु जगन्नाथ जी के अपार अद्भुत रूप के बारे में एक बड़ी ही सुंदर कथा है | बात तब की जब भगवान जगन्नाथ के मंदिर कोई भी अस्तित्व ही नहीं था | उस समय एक राजा हुए राजा इंद्रद्युम्न जो काफी दयावान और परोपकारी थे | तो एक बार भगवान श्री हरी विष्णु उनके स्वप्न में आए और उन्हे आज्ञा दिया – कि राजन समुन्द्र तट पर जाओ वहाँ तुम्हें एक बड़ा सा लकड़ी का लट्ठा मिलेगा उससे मेरी प्रतिमा बना कर पुरी में स्थापित करवाओ | स्वप्न के पश्चात जैसे ही राजा की आंखे खुली राजा तुरंत भागता हुआ समुन्द्र के तट पर गया जहाँ उसे सच में लकड़ी का एक विशाल लट्ठा मिला | तो राजा ने लट्ठा से मूर्ति बनाने के लिए ढिढोरा पिटवा दिया | इसी बीच देव शिल्पकार विश्वकर्मा जी एक वृद्ध मूर्तिकार का बदल कर राजा के सामने उपस्थित हो गए | और मूर्ति बनाने के लिए राजा से एक माह का समय मांगा और साथ ही विश्वकर्मा जी द्वारा राजा के समकक्ष एक शर्त भी रखा कि जब तक में (विश्वकर्मा जी) खुद आकर मूर्तियां आपको (राजा को) सौप नहीं देता तब तक कोई भी उनके कार्य में विघ्न नहीं डालेगा और न ही कोई उस कमरे में आएगा जहाँ ये मूर्तिया बनाई जाएंगी | राजा ने शर्त के लिए हाँ हाँ भर ली |
तो विश्वकर्मा जी द्वारा यह अतिदुर्लभ कार्य का किया जाना प्रारंभ हो गया और इस तरह आरंभ हुआ प्रभु जगन्नाथ के मूर्ति रूप में आने का | लेकिन कहते है न प्रभु की लीला प्रभु ही जाने, एक महीना पूरा होने से कुछ दिन पहले ही मूर्तिकार विश्वकर्मा जी के कमरे से आवाज आनी बंद हो गई | अब राजा को इस बात से बड़ी चिंता हुई कि आवाज क्यों नहीं आ रही है | कही बुजुर्ग मूर्तिकार को कुछ हो तो नहीं गया |
राजा ने अपने इसी चिंता और आशंका के कारण मूर्तिकार के कमरे का दरवाजा खोला और अंदर चले गए | लेकिन राजा को उस कमरे में कोई भी नहीं मिला, सिवाय उन अर्धनिर्मित मूर्तियों के जिसके हाथ-पाव तो अभी तक बने ही नहीं थे, और ऐसा देखकर राजा को अपनी गलती पर बहुत अफसोस हुआ | राजा पछताने लगा कि मैंने ये क्या कर दिया | तभी एक आकाशवाणी हुई कि राजन! जो हुआ सब भगवान श्री हरी के इच्छा से हुआ है | आप इन्ही मूर्तियों को ले जाकर मंदिर में स्थापित करो | राजा इंद्रद्युम्न ने ऐसा ही किया और तब से भगवान जगन्नाथ जी इसी रूप में विराजमान है | विश्वकर्मा जी चाहते तो एक मूर्ति के पूर्ण होने के बाद दूसरी मूर्ति का निर्माण प्रारंभ करते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया बल्कि उन्होंने सभी मूर्तियों को अर्धनिर्मित करके छोड़ दिया |
पुराणों में प्रचलित कथा के अनुसार
इसके पीछे भी एक काफी प्रचलित कथा है– कि एक बार देवकी रुक्मणी से श्री कृष्ण की अन्य रानियों के अत्याधिक जिद करने लगी कि वो उन्हे श्री राधा और श्री कृष्णा की प्रेम गाथा सुनाए | लेकिन कहानी सुनाने से पूर्व देवी रुक्मणी ने श्री कृष्ण के दो रानियों को दरवाजे पर पहरे के लिए लगा दिया जिससे कोई आ न जाए | फिर देवकी रुक्मणी ने श्री राधा और श्री कृष्णा की प्रेम गाथा बड़े ही वितान्त से सुनाना शुरू किया | सब रानियाँ श्री कृष्ण और श्री राधा रानी की कथा भी इस तरह डूब गई कि उन्हे भान ही नहीं रहा कि कब श्री कृष्ण, श्री बलराम जी और बहन सुभद्रा वहाँ आके खड़े हो वो गए वो सब भी कथा में इतना ज्यादा भाव विभोर हो गए कि वही खड़े-खड़े भाव में पिघलने लगे | उसी समय वही से गुजर रहे नारद जी ने प्रभु के इस दिव्य स्वरूप श्री कृष्ण, भाई बलराम जी और बहन सुभद्रा जी के दर्शन किया और फिर श्री कृष्ण के पास जाकर उनसे आग्रह किया कि प्रभु जिस रूप के दर्शन आज मुझे हुए है | मेरी पास से प्रार्थना है कि आप तीनों इसी रूप के साथ इस ग्रह मण्डल पर विराज मान हो, जिससे समस्त मानव जाति भी आप के इस परम आनंदमयी रूप के दर्शन पा सके और अपना जीवन धन्य बना सके | और हमारे मालिक करुणा निधान श्री कृष्ण अपने भक्त की बात कैसे टालते उन्होंने नारद जी के इस आग्रह को स्वीकार किया और ओडिसा के पूरी जिले में श्री जगन्नाथ रूप में अपने भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ विराज मान हुय | इसलिए भगवान श्री जगन्नाथ मंदिर में भगवान के हाथ-पाव नहीं है |
|| तो बोलिए जगत पिता जगन्नाथ जी की जय ||
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